श्रीमद् जगद्गुरु शंकराचार्य
कुडलि श्रृंगेरि महासंस्थान
दक्षिणाम्नाय श्री शारदा पीठ
कुडलि , शिवमोग्गा, कर्नाटक
23 जनवरी 1565 को तालिकोटा की लड़ाई, जिसे राक्षस-तंगड़ी की लड़ाई के रूप में भी जाना जाता है, के समय विजयनगर साम्राज्य को बहमनी सल्तनत की संयुक्त सेनाओं के खिलाफ विनाशकारी हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध मे पराजय के परिणामस्वरूप, विजयनगर साम्राज्य पूरी तरह से नष्ट हो गया, और पूरे क्षेत्र में अराजकता व्याप्त हो गई। जिन धार्मिक संस्थाओं को विजयनगर के शासकों से आदर और सम्मान प्राप्त हुआ करता था, उन्हें भी बहुत क्षति पहुँची।
युद्ध से उत्पन्न क्षति एवं अन्य कई स्थानीय कारणों से (तृतीय) नरसिंह भारती जी के उत्तराधिकारी श्री विद्यारण्य भारती जी (जो उस समय शृंगेरी मे थे), उन्हे शृंगेरी त्यागकर कूडली धाम मे स्थित पुराने मठ में आकर रहना पड़ा। (विभिन्न दस्तावेज़ और पुस्तको में इस ‘पुराने मठ' का उल्लेख मिलता है| किन्तु इस बात की खोज करना बाकी है, कि इस पुराने मठ को कूडली मे किसने बनवाया, कब बनवाया और क्यों बनवाया?)
उत्तराधिकारी के शृंगेरी छोड़ने के बाद, स्थानीय सामंत राजा आदि, मठ के प्रशासनिक वर्ग और मठ के अन्य शिष्यों ने आपसी सहमति से एक नए व्यक्ति को सन्यास की दीक्षा देकर पीठधिपति घोषित कर दिया और उन्हें श्री रामचंद्र भारती की उपाधि दी| (स्रोतः संक्षिप्तइतिहास)
कुछ समय बाद, अर्थात सन 1576 मे (धातृ संवत्सर) श्री (तृतीय) नरसिंह भारती जी अपनी तीर्थ यात्रा से लौट आए| किन्तु शृंगेरी लौटते समय मार्ग मे ही उनको जानकारी मिली कि शृंगेरी मे उनका उत्तराधिकारी उपस्थित नहीं है और कोई अज्ञात व्यक्ति पीठासीन हो चुका है| अतः इस असमंजस की स्थिति मे श्री (तृतीय) नरसिंह भारती जी शृंगेरी नहीं लौटे और वे अपने पूरे राज चिन्ह एवं पीठ के आराध्य देवता श्री विद्याशंकर एवं चंद्रमौलेश्वर के साथ श्री कूडली धाम आ गए। कूडली मे स्थित पुराने मठ आने पर उन्हे ज्ञात हुआ कि उनके उत्तराधिकारी श्री विद्यारण्य भारती जी भी वहाँ पर पहले ही आकर रुके हुए हैं।
कूडली के आस पास के रजवाड़ो के प्रमुखों को जब पता चला कि श्री (तृतीय) नरसिंह भारती स्वामी जी अपनी लंबी तीर्थ यात्रा से कूडली लौटे हैं, तो उन्होंने स्वामी जी का दर्शन किया एवं शृंगेरी वापस नहीं लौटने और कूडली में ही बसने की प्रार्थना की। उन्होंने स्वामी जी से आशीर्वाद मांगा और आश्वस्त किया कि कूडली में जगद्गुरू पीठ की गरिमा के अनुसार कूडली मे सभी आवश्यक व्यवस्था की जाएगी।
विजयनगर साम्राज्य के पतन के पश्चात, तरिकेरे, केलळी, बसवापट्टण, चन्नगिरि, चित्रदुर्ग, हरपनहल्ळी, संतेबेन्नूरु तथा आस पास के अन्य स्थानो के सामंत राजा एवं किल्लेदार , एक ऐसे शक्ति की खोज मे लग गए थे जो सम्पूर्ण हिन्दू रजवाड़ो को एवं समाज को एकीकृत कर सके। कूडली मे लौटे हुए जगतगुरु शंकराचार्य (तृतीय नरसिंह भारती जी) के रूप मे उन्हे वह शक्ति दिखाई दी। जगद्गुरू शंकराचार्य श्री तृतीय नरसिंह भारती जी ने उनकी प्रार्थना को मान्य करते हुए कूडली मे ही रुकने का निर्णय किया | स्वामी जी के इस निर्णय से प्रसन्न होकर बसवापट्टण के किल्लेदार (प्रशासक) हनुमप्प नायक ने कूडली में पुराने मठ के स्थान पर एक भव्य नए मठ और श्री विद्याशंकर मंदिर का निर्माण कराया। मठ के भवन ही नहीं अपितु उन्होंने सैकड़ो एकड़ कि भूमि को मठ के नाम पर दान किया जिससे मठ की दैनिक गतिविधियों का निर्वाह हो सके। इसके अतिरिक्त, उन्होंने मठ के कर्मचारियों के लिए कुछ घरों का भी निर्माण करवाया। इन निर्माणकार्यों के पश्चात, कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा, शालिवाहन शक 1498 (सोमवार, 26 अक्टूबर, 1576) को श्री (तृतीय) नरसिंह भारती स्वामी ने दक्षिणम्नाय शारदा पीठ के कूडली धाम में लौट आने की घोषणा की एवं शारदा पीठ के आधिकारिक धर्मध्वज को मठ के ऊपर लहराया।
इस उपरोक्त घटना की स्मृतिमें, आजभी, कूडली धाम के श्रीमठ में प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा पर महापूजा/महाभिषेक एवं विशेष उत्सव आयोजित किए जाते हैं। सन 1576 से ले कर आजतक दंडी सन्यासियों की परंपरा इस पीठ पर अनवरत चल रही है| वर्तमानमें, श्री श्री विद्याभिनव विद्यारण्य भारती स्वामी 71वें पीठाधीश्वर (शंकराचार्य) के रूप मे विराजमान हैं, एवं उनके उत्तराधिकारी के रूप मे श्री अभिनव शंकर भारती स्वामी ने सन्यासदीक्षा ली है जो इस पीठ के 72वें शंकराचार्य बनेंगे|
शृंगेरी में, आदि शंकरचार्य जी ने दक्षिणम्नाय पीठ की स्थापना की और श्री सुरेश्वर आचार्य को इसके पहले प्रमुख के रूप में नियुक्त किया। श्री सुरेश्वर आचार्य से प्रारम्भ होकर कुल 47 पीठचार्यों ने शृंगेरी जगद्गुरु पीठ की अध्यक्षता की। (स्रोतः श्री कूडली मठ का संक्षिप्त इतिहास (कन्नड़ ग्रंथ: लेखक-विष्णु तीर्थ)
सन 1546 में (शालिवाहन शक वर्ष 1468) श्री (तृतीय) नरसिंह भारती स्वामी को दक्षिणम्नाय शारदा पीठ के अधिपति नियुक्त किया गया। इनके कार्यकाल मे एक विशेष घटना घटी। सन 1551 (शालिवाहन शक वर्ष 1471) मे श्री विद्यारण्य भारती को उन्होने अपने उत्तराधिकारी के रूप मे नियुक्त किया और (तृतीय) नरसिंह भारती स्वामीजी तीर्थयात्रा पर उत्तर भारत की ओर निकल गए। कई विपदाओं के कारण बीस वर्षों तक वे अपनी यात्रा से शृंगेरी लौट नहीं पाए|