कूडली ग्राम एक प्रख्यात तीर्थ स्थली है जो कर्नाटक के शिमोगा जिले के मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर पर स्थित है। यहाँ तुंगा और भद्रा नदियों का संगम होता है। "प्राचीन ग्रंथों में, इन दो नदियों को “युगल” नदी या “यमळ” नदी के रूप में जाना जाता है। अतः इस धाम अथवा ग्राम को “यमळपुरी” भी कहा जाता है। तुंगा और भद्रा नदियों के संगम के कारण, इस नदी को “तुंगभद्रा” के रूप में जाना जाता है। कूडली धाम की महिमा का वर्णन स्कंद पुराण, भविष्योत्तर पुराण और ब्रह्मांड पुराण में किया गया है।
श्री कुडलि क्षेत्र
प्राचीन काल में, तुंगा और भद्रा नदियों के उद्गम के पहले, एक प्राचीन झील हुआ करती थी जो आज भी वर्तमान संगम क्षेत्र में स्थित है। इस झील के समीप मुनियों और ऋषियों के कई आश्रम थे। ये ऋषिजन निरंतर ध्यान, प्राणायाम एवं उपासना में रहते थे तथा वे त्रिकालज्ञानी एवं वेदविद थे।
एक बार, श्रीमन्नारायण (भगवान विष्णु), गरुड़ और सिद्ध-गंधर्व के साथ पृथ्वी पर विहार करते हुए इन ऋषियों को देख इस धाम में उतरे| शांत वातावरण से अभिभूत होकर भगवान नारायण एक ब्राह्मण का वेष धरकर झील के पास पहुंचे। उनके साथ सिद्ध, गंधर्व भी और यहाँ तक कि गरुड़ भी ब्राह्मण के अनुयायी बनकर आये। समस्त ऋषिगण ने आगंतुकों का अर्घ्य देकर, फूल, प्रसाद आदि के माध्यम से स्वागत किया और उनकी यात्रा का कारण पूछा।
ब्राह्मण वेषधारी भगवान श्रीनारायण ने कहा, ‘मैं श्वेतद्वीप का निवासी हूँ और वन में विचरण कर रहा हूँ, ताकि आप जैसे ऋषि-मुनियों का दर्शन कर सकूं। आप प्रतिष्ठित मुनियों की सभा, कमल के फूलों से भरी इस निर्मल झील और पेड़ों और झाड़ियों से सजे इस शांत स्थान को देखकर, मैं एक दिन के लिए यहाँ निवास चाहता हूँ’ |
उनकी बात सुनकर ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न हुए। वे त्रिकालज्ञानी थे, अतः उन्हें इस बात को समझते देर नहीं लगी, कि यह ब्राह्मण के वेष में कोई और नहीं अपितु स्वयं भगवान श्रीनारायण हैं और उनके साथ में सिद्ध-गंधर्व आदि हैं। ऋषियों ने भक्ति भाव से उनका प्रणाम किया और हृदय से उनकी स्तुति की।
ऋषियों की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीनारायण ने सिद्ध-गंधर्व आदि के साथ अपने दिव्य रूप मे प्रकट हुए। भगवान के इस दिव्य मंगलमय रूप को देखकर ऋषियों ने उनकी स्तुतिमे पुनः कहा, ‘आपके चरणरज से हमारा यह स्थान पवित्र हुआ है। अतः कृपया अपने पदचिन्ह यहीं रहने दें।’
प्राचीन ऋषि आश्रम और हरिहर क्षेत्र
‘तथास्तु' कहकर भगवान श्री नारायण ऋषियों को दिखाया कि उनके पदचिह्नों के साथ में ही भगवान शिव के पदचिन्ह भी सरोवर के तट पर उपस्थित हैं। जब ऋषियों ने पूछा, कि वहां भगवान शिव के पदचिह्न कैसे आये ? तो प्रभु श्री नारायण ने उत्तर दिया, 'अतीत में, ब्रह्म हत्या के पाप को दूर करने के लिए जब शिव जी त्रिलोक की परिक्रमा कर रहे थे, तब शिव जी इस झील के तट पर बैठकर विश्राम किये थे। उस समय उनके पदचिह्न इस स्थान पर बने थे। अब मेरे पदचिन्ह भी उनके साथ जुड़े हैं| अतः मेरे और शिव जी की उपस्थिति से यह स्थान सदा के लिए पवित्र रहेगा।’
कई ऐतिहासिक काव्य एवं पौराणिक मान्यता के अनुसार आदि शंकरचार्य जी स्वयं कूडली धाम में देवी शारदा की एवं शारदा पीठ की स्थापना की है|
आदि शंकरचार्यजी ने ब्रह्माके अवतार मंडनमिश्र और सरस्वती की अवतार, मंडनमिश्र की पत्नी, उभयभारती देवी को शास्त्रार्थ मे पराजितकिया | पराजित मंडनमिश्र ने विजेता के शिष्यत्व को स्वीकारा और सुरेश्वराचार्य नामक संन्यासी बनगए। पति के सन्यास के बाद उभयभारती जी अपने लोक लौटने को तत्पर हुईं। तब आदि शंकरचार्य जी ने श्रीवनदुर्गामंत्र से उन्हे प्रसन्न किया तथा उनसे दक्षिणमें स्थापित किए जाने वाले दक्षिणाम्नाय पीठ मे विराजमान होने की प्रार्थना की| इस प्रार्थना के उत्तर मे उभयभारती के रूप मे स्थित देवी शारदा ने कहा,
“मैं आपके पीछे-पीछे चलूँगी"। आप मुझे पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। आप जहां भी मुड़कर मुझे देखेंगे मैं वहीं रुक जाऊँगी। आदि शंकरचार्य जी ने यह बात स्वीकार कर ली और दक्षिण दिशा की ओर अपने शिष्यो के साथ निकल पड़े। तुंगभद्रा के संगम पर पहुँचने पर आदि शंकरचार्य जी ने इस क्षेत्र की महानता का अनुभव किया, यह विचार किया की दक्षिणाम्नाय के लिए उपयुक्त स्थान है और उन्होने पीछे मुड़कर देखा। देवी उसी जगह स्थिर हो गयी। आदि शंकरचार्य जी ने वहीं पर श्रीयंत्र की स्थापना की और शारदा पीठ बनाया। देवी शारदा दक्षिणाम्नाय पीठ की अधिष्ठात्री देवी है और उस शारदा देवी की खड़े हुए स्वरूप मे ही प्रतिमा यहाँ पर बनी हुई है।
श्री शारदाम्बा मंदिर
इस असाधारण दृश्य को देखकर श्री राम वसिष्ठ मुनि के पास गए। वसिष्ठ मुनि ने उन्हे बताया कि वानर की छाया वानरराज वाली की थी। उन्होंने भगवान राम को परामर्श दिया कि वे पवित्र तुंगभद्रा संगम पर जाएं और वाली के प्रेतत्व को हटाकर उसे पुण्यलोक प्रदान करने के लिए एक अनुष्ठान करें। तत्पश्चात भगवान राम वसिष्ठ जी के साथ तुंगभद्रा नदी के पवित्र संगम कूडली आए और वहाँ उन्होंने स्नानादि करके रेत से शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा की। वसिष्ठ मुनि ने शिवलिंग का नाम श्री रामेश्वर रखा तथा बाली के प्रेत को मुक्ति मिली |
इसी कारण से जो लोग प्रेतबाधा आदि से पीड़ित हैं, तुंगभद्रा संगम में स्नानकरने, श्राद्ध अनुष्ठान करने और श्रीरामेश्वर की पूजा करने से उन्हें इस तरह के कष्टों से छुटकारा मिलजाता है।सैकड़ों ऐसे पीड़ित आज भी संगम मे अनुष्ठान करते हुए दिखाई देते हैं|
श्री रामेश्वर मंदिर
स्कंद पुराण में तुंगभद्रा संगम स्थान पर भगवान श्रीराम द्वारा रामेश्वर लिंग की स्थापना करने की कथा विद्यमान है। संगम स्थित इस रामेश्वर मंदिर मे श्री शक्ति गणपति और श्री चामुंडेश्वरी देवी भी विद्यमान हैं।
इसके साथ एक पौराणिक कथा भी जुड़ी हुई है। रावण पर विजय प्राप्ति तथा अपने राज्याभिषेक के बाद, भगवान राम अयोध्या में न्याय और धर्मपूर्वक शासन कर रहे थे। एक दिन प्रातःकाल, जब वे बगीचे में थे, उन्होने अपने पीछे दो छाया रूपों को देखा। एक परछाई मे उन्हे अपनी समानता लगी, तथा दूसरी छाया वानर के रूप में थी।
भविष्योत्तर पुराण में वर्णित है इस मंदिर को प्रह्लाद ने बनवाया था। इसके अतिरिक्त उसी पुराण में यह भी उल्लिखित है कि भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को इस स्थान की महानता के विषय में बताया था।
हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद सुख और संतोषपूर्वक राज्य पर शासन कर रहे थे। एक बार उनकी इच्छा महामंत्रोपदेश लेकर भगवान विष्णु को पुरश्चरण द्वारा प्रसन्न करने की हुई| प्रहलाद गालव ऋषि के आश्रम गए। प्रह्लाद ने महर्षि गालव से उस महामंत्र को प्राप्त करने की अपनी इच्छा व्यक्त की जो उन्हे विष्णु-पद की ओर ले जाएगा। तब ऋषि उन्हे बत्तीस अक्षरों का मंत्र दिया। उन्होंने आगे बताया, कि तुंगभद्रा संगम के पास, जिसमें ब्रह्मा तीर्थ, विष्णु तीर्थ तथा अन्य दिव्य तीर्थ भी हैं, वहाँ इस मंत्र का पुरश्चरण करने से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है।
गालव ऋषि के निर्देशानुसार प्रह्लाद तुंगभद्रा नदी के संगम अर्थात यमलपुरी (कूडली ) पहुँच कर श्री लक्ष्मीनरसिंह मूल मंत्र का जाप करते हैं, जो गालव ऋषि ने दीक्षा मे उन्हे प्रदान किया था। कुछ समय पश्चात भगवान श्री नरसिंह जल में शालीग्राम शिला के रूप में प्रकट हुए। प्रह्लाद ने शिला को पानी से बाहर निकालकर एक स्थान पर स्थापित करके उसकी पूजा की। प्रह्लाद की भक्ति से प्रभावित होकर, नरसिंह शालीग्राम की शिला से प्रकट हुए| प्रह्लाद ने प्रार्थना की कि "प्रभु मैं हर जन्म में आपका भक्त रहूँ। तथा इस तुंगभद्रा संगम क्षेत्र को आप आशीर्वाद दें कि यहाँ आप सदैव उपस्थित रहेंगें| सभी को आशीर्वाद प्रदान करेंगे तथा जो लोग आपका सदैव चिंतन करते हैं, उन्हें जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त कर देगें"। इस पौराणिक संदर्भ के अतिरिक्त एक अन्य लोककथा भी प्रचलित है।
प्रह्लाद की भक्ति से प्रसन्न होकर, भगवान नरसिंह शालीग्राम पत्थर से प्रगट हुए और उन्हें अपने विराट रूप में दर्शन दिये। तब प्रह्लाद, भगवान से प्रार्थना करते हैं, “कृपया आप एक ऐसा रूप ले लीजिये, जो पूजा के लिए सहज और सरल हो”। उनकी प्रार्थना सुनकर, नरसिंह भगवान ने उन्हें अपने सिर पर हाथ रखने का निर्देश दिया। तब प्रह्लाद अपना दाहिना हाथ उठाते हैं। । श्रीस्वामी वीरासन में आसीन कुब्जवतार (छोटे रूप) धारण करते हैं, जिनके लिए प्रह्लाद जी की हथेली और पृथ्वी के बीच का स्थान मात्र ही पर्याप्त हो गया। नरसिंह के इस छोटे से रूप को देखकर प्रह्लाद ने अपनी हथेली श्री नरसिंह के सिर पर रख दी। आज भी, इस मूर्ति की खोपड़ी चपटी हुई है और बीच में थोड़ा सा हिस्सा उठा हुआ है। इस पर एक चक्र का चिह्न भी है। ऐसा कहा जाता है कि प्रह्लाद की हथेली पर एक चक्र प्रतीक था और वह प्रतीक यहाँ नरसिंह के सिर पर चिन्हित है।
यही कारण है कि इस विग्रह के लिए एक और नाम ‘शिरश्चक्रमूर्ति' है। भक्तों की इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए श्री मूर्ति के दाहिने हाथ में एक ‘चिंतामणि' है। नरसिंह इस क्षेत्र के अधिष्ठाता देवता हैं। यही कारण है कि कूडली को पुराणों में श्री नरसिंह क्षेत्र भी कहा जाता है।
चिंतामणि नरसिंह मंदिर
पुराणों में ब्रह्मेश्वर की स्थापना की कथा वर्णित है।
एक बार भगवान ब्रह्मा जी ने शिव जी की कृपा प्राप्तकरने के लिए तपस्या करने का संकल्प लिया और तुंगभद्रा संगम क्षेत्र को तपस्या के लिए चयनित किया| तत्पश्चात ब्रह्मा जी ने यहाँ एक शिवलिंग स्थापित किया| प्रतिदिन संगम में स्नान करते थे तथा गीले वस्त्र मेही शिवलिंग की पूजा करते थे।उन्होने यहाँ पर तीन हजारवर्ष तक शिवजी की पूजा की और सिद्धि प्राप्तकी| उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ब्रह्माजी के सम्मुख प्रगट हुए और उनकी इच्छा पूर्ति का वरदान दिया।
यह चमत्कारिक घटना अश्विन शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन घटित हुई थी। शिव जी ने कहा, अश्विन शुक्ल पूर्णिमा के दिन मैं यहाँ रात-दिन उपस्थित रहता हूँ।
जो लोग इस दिन मेरी पूजा करेंगे, उनकी सभी इच्छाओं की पूर्ति होगी। इसके अतिरिक्त, जब सोमवार और अमावस्या एक साथ आए , तथा गत शनिवार को यदि त्रयोदशी हो तो दिन मे उपवास रखें एवं सायंकाल मे ब्रहमेश्वर की पूजा करें, तथा चतुर्दशी (जो रविवार को होगी) को दिन भर उपवास करें और रात्रि जागरण करें, तथा सोमवार को अर्थात अमावस्या को, प्रातःकाल तथा कुहूयोग अवधि मे संगम स्नान करें और गीले कपड़े पहनकर भगवान ब्रह्मेश्वर की पूजा करें। जो ऐसा करता है उसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।’ यह कहकर शिव जी अंतर्ध्यान हो गये।
ब्रह्मा जी को भगवान शिव जी के प्रत्यक्ष रूप के दर्शन हुए थे। इस घटना के स्मरण हेतु आज भी यहाँ अश्विन शुक्ल पूर्णिमा के दिन रथोत्सव मनाया जाता है।
ब्रह्मेश्वर
विद्याशंकर मंदिर
चंद्रामौलीश्वर मंदिर
भवानी शंकर मंदिर
मातृभूतेश्वर मंदिर (अम्मा जी स्वामी का समाधि स्थल)
किवुड वेंकण्णेश्वर मंदिर
राजा रामेश्वर मंदिर
रामलिंगेश्वर मंदिर
काशी विश्वेश्वर मंदिर
संगमेश्वर मंदिर
आदि भैरव मंदिर
रामेश्वर मंदिर (पहले वर्णित चार मुख्य मंदिरों मे से एक)
इस लेख मे पूर्व उल्लिखित चार मुख्य मंदिरों के अतिरिक्त, इस धाम में भगवान शिव के विभिन्न रूपों वाले कुल ग्यारह प्राचीन मंदिर है, जो निम्नवत है:
इन 11 शिव मंदिरों के अतिरिक्त, इस धाम के अन्य देवताओं के मंदिर भी हैं, जो निम्नवत है:
कोदंडराम मंदिर (शारदाम्बा मंदिर प्रांगण के भीतर)
काल भैरवेश्वर (भैरव पहाड़ी पर)
स्वयंवर पार्वती का मंदिर (ब्रह्मेश्वर मंदिर प्रांगण के भीतर)
दुर्गा देवी मंदिर (ग्राम देवता)